बालकृष्ण का नृत्य....
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सारे व्रज में श्रीकृष्ण के नृत्य की चर्चा होने लगी। दल-की-दल व्रजगोपिकाएं श्रीकृष्ण का नृत्य देखने नंदभवन में आने लगीं।
आनन्द के अवतार श्रीकृष्ण भी अपने मधुर नृत्यरस का सारे व्रजवासियों में मुक्तहस्त से वितरण करते थे।
श्रीकृष्ण का यह लीलामृत, जो नाग, गंधर्व और किन्नरों के लिए भी दुर्लभ है, उसे गोबर पाथने वाली व्रजबालाएं दोनों हाथों से भर-भरकर पान कर रहीं थीं
श्रीकृष्ण का नृत्य देखकर मोर नंदमहल के प्रांगण में आ जाते। कोई गोपी मोर पकड़ कर श्रीकृष्ण के सामने खड़ा कर देती और कहती–‘देख नीलमणि!
यह मयूर का नृत्य देख। कितना सुन्दर नृत्य है! तू भी इसकी तरह नाच तो सही।’
गोपी की इच्छा पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण अपनी दोनों भुजाओं को पीठ की ओर ले जाकर फैला देते,
कमर झुकाकर मोर की तरह गरदन उठा लेते और रुनझुन-रुनझुन ध्वनि करते हुए व्रजबालाओं की परिक्रमा करने लगते।
गोपियों के आनन्द का पार नहीं रहता। नंदमहल का प्रांगण खुशी से गूंज उठता और गोपियां श्रीकृष्ण को अपने वक्ष:स्थल से लगा लेतीं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य को देखना, उनके गायन को सुनना और बालसुलभ क्रीडाओं को देखना ही व्रजगोपियों की दिनचर्या बन गयी थी।
व्रजरानी यशोदा ताली बजाते हुए मधुर स्वर में गाकर कन्हैया को नंदमहल के आंगन में नचातीं जिससे श्रीकृष्ण के कमर की किंकणी और नूपुरों की स्वरलहरियों से सारा प्रांगण सदैव गुंजायमान रहता था।
प्रात:काल होते ही व्रजसुन्दरियां नंदमहल के प्रांगण में एकत्र हो जातीं और श्रीकृष्ण से मनुहार करतीं–
‘व्रजनन्दन! तुम अपनी बालचेष्टाओं से हमारे मन को चुरा लेते हो। हम सब तुम पर बलिहार जाती हैं। तू नाच दे! नाच दे! यह ले–थेई थेई थेई तत्त थेई।’ इस प्रकार व्रजसुन्दरियां ताल देने लगतीं और बालकृष्ण नाचने लगते।
व्रजरानी अपने कन्हैया का अस्पष्ट गायन और गोपियों की ताल के साथ नृत्य देखकर अपना कार्य करना भूल जातीं और विस्मित हुई न जाने कितने समय के लिए खड़ी रह जातीं।
नंदबाबा भी अपने पुत्र के मनोहर नृत्य को देखने की आशा से आते परन्तु उन्हें देखकर कन्हैया सकुचा जाते।
माता यशोदा अपने पुत्र को गोद में उठाकर बारम्बार उनके कपोलों को चूमतीं और उन्हें नंदबाबा को नृत्य दिखाने के लिए प्रोत्साहित करतीं–
माता का प्रेम भरा प्रोत्साहन पाकर श्रीकृष्ण करताली देते हुए नूपुर की रुनझुन-रुनझुन ताल पर नाचने लगते और नंदबाबा अपलक नेत्रों में उस छवि को भरे हुए कुछ समय के लिए सब कुछ भूल जाते और उनका मन उस नूपुरध्वनि के साथ नाचने लगता।
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सारे व्रज में श्रीकृष्ण के नृत्य की चर्चा होने लगी। दल-की-दल व्रजगोपिकाएं श्रीकृष्ण का नृत्य देखने नंदभवन में आने लगीं।
आनन्द के अवतार श्रीकृष्ण भी अपने मधुर नृत्यरस का सारे व्रजवासियों में मुक्तहस्त से वितरण करते थे।
श्रीकृष्ण का यह लीलामृत, जो नाग, गंधर्व और किन्नरों के लिए भी दुर्लभ है, उसे गोबर पाथने वाली व्रजबालाएं दोनों हाथों से भर-भरकर पान कर रहीं थीं
श्रीकृष्ण का नृत्य देखकर मोर नंदमहल के प्रांगण में आ जाते। कोई गोपी मोर पकड़ कर श्रीकृष्ण के सामने खड़ा कर देती और कहती–‘देख नीलमणि!
यह मयूर का नृत्य देख। कितना सुन्दर नृत्य है! तू भी इसकी तरह नाच तो सही।’
गोपी की इच्छा पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण अपनी दोनों भुजाओं को पीठ की ओर ले जाकर फैला देते,
कमर झुकाकर मोर की तरह गरदन उठा लेते और रुनझुन-रुनझुन ध्वनि करते हुए व्रजबालाओं की परिक्रमा करने लगते।
गोपियों के आनन्द का पार नहीं रहता। नंदमहल का प्रांगण खुशी से गूंज उठता और गोपियां श्रीकृष्ण को अपने वक्ष:स्थल से लगा लेतीं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य को देखना, उनके गायन को सुनना और बालसुलभ क्रीडाओं को देखना ही व्रजगोपियों की दिनचर्या बन गयी थी।
व्रजरानी यशोदा ताली बजाते हुए मधुर स्वर में गाकर कन्हैया को नंदमहल के आंगन में नचातीं जिससे श्रीकृष्ण के कमर की किंकणी और नूपुरों की स्वरलहरियों से सारा प्रांगण सदैव गुंजायमान रहता था।
प्रात:काल होते ही व्रजसुन्दरियां नंदमहल के प्रांगण में एकत्र हो जातीं और श्रीकृष्ण से मनुहार करतीं–
‘व्रजनन्दन! तुम अपनी बालचेष्टाओं से हमारे मन को चुरा लेते हो। हम सब तुम पर बलिहार जाती हैं। तू नाच दे! नाच दे! यह ले–थेई थेई थेई तत्त थेई।’ इस प्रकार व्रजसुन्दरियां ताल देने लगतीं और बालकृष्ण नाचने लगते।
व्रजरानी अपने कन्हैया का अस्पष्ट गायन और गोपियों की ताल के साथ नृत्य देखकर अपना कार्य करना भूल जातीं और विस्मित हुई न जाने कितने समय के लिए खड़ी रह जातीं।
नंदबाबा भी अपने पुत्र के मनोहर नृत्य को देखने की आशा से आते परन्तु उन्हें देखकर कन्हैया सकुचा जाते।
माता यशोदा अपने पुत्र को गोद में उठाकर बारम्बार उनके कपोलों को चूमतीं और उन्हें नंदबाबा को नृत्य दिखाने के लिए प्रोत्साहित करतीं–
माता का प्रेम भरा प्रोत्साहन पाकर श्रीकृष्ण करताली देते हुए नूपुर की रुनझुन-रुनझुन ताल पर नाचने लगते और नंदबाबा अपलक नेत्रों में उस छवि को भरे हुए कुछ समय के लिए सब कुछ भूल जाते और उनका मन उस नूपुरध्वनि के साथ नाचने लगता।
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