Wednesday, 14 June 2017



जीवन का प्रथम लक्ष्य ईश्वर को प्रसन्न करना है:-

हम अपने हाथों का प्रभु से श्रद्धा के साथ प्रार्थना करने में, पैरों का उन्हें सर्वत्र खोजने में, मन का उनकी नित्य उपस्थिति के चिंतन में लगाना चाहिए। विचार से हृदय सिंहासन पर प्रभु ही विराजित होने चाहियें— "शान्ति के रूप में प्रभु, प्रेम के रूप में प्रभु, दया के रूप में प्रभु, समझ के रूप में प्रभु, करुणा के रूप में प्रभु, ज्ञान के रूप में प्रभु ही सर्वत्र हो," हमारे पास समय बहुत थोड़े हैं, और यात्रा बहुत लम्बी करनी है। आत्मा से परमात्मा को पहचान लेने तक की यात्रा करनी है। इस माया के परदे को चीर कर अपने अन्दर छिपे बैठे उस अनन्त चैतन्य ब्रह्म की पहचान करनी है।
हमें सदैव यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह संसार केवल साध्य की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। चलते-फिरते, उठते-बैठते, कैसे भी भगवान का नाम लेते रहिये, स्मरण करते रहिये
प्रभु-प्रेम एक गहरा आकर्षण है। जीवन में प्रभु के प्रति प्रेम ज्यों-ज्यों उतरता चला जाता है, त्यों-त्यों संसार के प्रति वैराग्य स्वत: घटित होने लगता है। संसार में कुछ भी प्रभु-प्रेम से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।
हमें जो भी प्राप्त है सब प्रभु का है अपना कुछ नहीं है। सदा हमें भाव से कर्ता नहीं अकर्ता होना है। ☝🏼☺

जै श्री हरी श्री हरी श्री हरी...🌸💐👏🏼
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